सिवनी – आद्याजगतगुरू ‘ कराचार्य द्वारा धर्मरक्षार्थ देष के चार कोनो में चार पीठो की स्थापना की गई जिसके बाद उन पीठो पर एक एक षंकराचार्य की पदासीन किया गया जो परम्परा आज भी चली आ रही है लेकिन वर्तमान में कुछ परिस्थितियाॅ ऐसी निर्मित हो गई जिसमें जो चाहे वही अपने आप को षंकराचार्य बता कर अपने वाहनो में एक प्लेट में षंकराचार्य लिखवाकर घूम रहे है रविवार को गुरूपूर्णिमा के अवसर पर नगर के राषि लाॅन में पधारे प्रज्ञानानंद की पहले को नगर में धूमधाम से रैली निकाली गई जहां उनका जगह जगह लोगो ने स्वागत किया एक संत के नाते जिसके बाद रात्रि में प्रेस कान्फेस का आयोजन किया गया जिसमें उन्होने बताया कि भारत एक धर्मप्राणी देष है जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रात काल से रात्रिकाल में विश्रांति तक हम धर्म का पालन करते है धर्म का आश्रय ग्रहण करते है। मेरा परम सौभाग्य रहा कि मै ऐसे सर्वसर्मर्थ ऐसे गुरू का षिष्य बना जिनकी पहचान ज्ञान साधना तपस्या के लिए रही उन्ही गुरू का सौभाग्य रहा। मेरी ना तो षंकराचार्य बनने की इच्छा थी और ना ही कोई बडी सम्पत्ति इकटठा करने की इच्छा थी अंर्तमुखी से भाव होने के नाते मै हमेषा बर्हिमुख से बचता रहा समय काल की नियति ने मुझे यहा तक लेकर आई ब्रम्हलीन जगतगुरूजन ने एकांत में बुलाकर गुरूजी ने पद के लिए कहा था लेकिन मेरी कोई इच्छा ही नही थी धर्मरक्षा के लिए स्वीकार किया है जहा योग्य आचार्य दिखे तो मै विषुद्ध रूप से धर्म का प्रचार करूंगा। और धर्म को गति दूंगा और यह इच्छा पहले भी थी और आज भी है षंकर रपम्परा में मठात्मय परम्परा में वसीयत का कोई स्थान नही है ज्ञान और योग्यता के आधार पर करपात्री जी महाराज ने गुरूजी को षंकराचार्य जी को स्थापित किया था। पत्रकार वार्ता में पत्रकारो द्वारा जब प्रज्ञानंद से पूछा गया कि जब महाराजश्री को समाधि दी जा रही थी तब आप कहा थे तो उन्होने कहा मै गया था जिसके बाद दूसरे सवाल क्या आप विद्वानो से ष्षास्त्रार्थ को तैयार है तो उन्होने कहा कि मै द्वारका षारदापीठ के षंकराचार्य स्वामी सदानंदजी और बदरिकाश्राम के षंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेष्वरानंदजी जी से ष्षास्त्रार्थ को तैयार हूॅ। जिसके बाद पूछा गया कि देष के जाने माने मुकेष अंबानी के बेटे के विवाह मे ंदेष के सभी जाने माने लोगो को आमंत्रित किया गया था जिसमें आप गये नही आपको बुलाया नही गया तो उन्होने कहा मुझे बुलाया नही गया था जिसके बाद पूछा गया कि आपने दंड दीक्षा कब ली तो उन्होने कहा कि मैने ब्रम्हलीन द्विपीठाधीष्वर जगतगुरू ष्षंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वतीजी महाराज से दंड दीक्षा ली थी। जिसके बाद ष्षंकराचार्य परम्परा में वसीयत परम्परा को ना मानते हुए ज्ञान को महत्वपूर्ण बताया जिसके बाद ब्रम्हलीन द्विपीठाधीष्वर जगतगुरू षंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंदजी द्वारा दोनो ष्षंकराचार्यो के नाम बनाई गई वसीयत को फर्जी वसीयत बताया जिसके बाद उनके द्वारा ष्दो पीठो के ष्षंकराचार्य लिखे जाने के विषय में कहा कि जिस दिन कोई योग्य व्यक्ति मिल जायेगा मै उन्हे वो दोनो पीठ सौप दूंगा।